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Elu bai & Govind Karma

एक दिन ऐलु भाई और गोविंद भैया के साथ उनके रसायन मुक्त खेत में।

इस्स कहानी के द्वारा लेखक हमें बता रहे है कैसे और क्यूँ ऐलु भाई और गोविंद भैया ने अपने रासायनिक खेती से प्राकृतिक खेती की और चले।

A story interviewed and written by Laxminarayan Devda from Samaj Pragati Sahayog (SPS), MP

Dewasiya village, Dewas dist., Madhya Pradesh

आज सुबह से ही ऐलु दीदी बहुत हड़-बड़ाहट में है। वे अपने घर के पीछे बने पक्का नाडेप से जैविक खाद निकालकर छरनी से छान रही हैं। उनके पति गोविन्द भैया बैल गाड़ी तैयार करने में लगे हैं। दीदी बाँस की टोकरी में खाद भर लेती हैं। फिर फटा-फट ज्वार, मक्का, लाल तुवर, तिल, मूंग, चवला, उड़द, भिन्डी, डांगरे, ककड़ी, लाल कद्दू, सफेद कद्दू, बल्लर और लौकी के बीजों को पोटली में बाँध लेती है। वे सारा सामान लेकर झट से गाड़ी में बैठ जाती हैं और भैया बैल-गाड़ी लेकर खेत की ओर चल पड़ते हैं। खेत पहुँचकर भैया जमीन में तीन-चार इंच खोदकर मिट्टी में नमी देखते हैं कि बीज बोने के लिए पर्याप्त नमी है या नहीं। वे खरीफ की बोवनी बैलों द्वारा ही करते हैं।

बोवनी से पहले दीदी ज्वार का बीज और जैविक खाद बराबर मात्रा में मिलाती हैं ताकि पौधे घने न हो और उनकी बढ़वार सही से होती रहे। जब खाद बीज के साथ जमीन में गिरता है तो पौधों को जड़ों से ही खुराक मिलनी शुरु हो जाती है। इससे पौधे स्वस्थ और मजबूत होते हैं। वे खरीफ सीजन में हमेशा ज्वार की बोवनी करके मुहूर्त करती हैं भले ही वे पाँच कावे (लाईन) ही क्यों ना हो। उनका कहना है

…ज्वार की खेती में कम खर्च होता है। जिसमें ना तो रासायनिक खाद लगता है और ना ही दवाई। हाँ चिड़िया भगाना थोड़ा मुश्किल काम है। एक महीना आफत उठा ली तो समझो ज्वार माता पकी। यदि सरकार ज्वार अच्छे भाव से खरीदने लगे तो किसान फिर से बोने लगेंगे।…

दीदी अपनी तेरह बीघा जमीन में पहले अनाज, दाल और सब्जियाँ उगाती हैं, उसके बाद ही वे दूसरी फसलें बोती हैं ताकि परिवार को साल भर खाने की चिन्ता न रहे। भैया बताते हैं

हमारे बाप-दादा घर का ही बीज बोते थे। ना तो बाजार का रासायनिक खाद जानते थे और ना ही दवाईयाँ। साल में एक बार गोबर खाद डाल दिया तो तीन साल तक और कुछ डालने की जरूरत ही नहीं होती थी। पिता जी तो यूरिया खाद का नाम सुनते ही घबरा जाते थे। क्योंकि गाँव में एक बार बच्चों ने शकर समझ कर इसे खा लिया था। एक बकरी तो इसे खाकर मर ही गई थी। गाँव में फ्री में मिलने पर भी किसान इसे लेने से डरते थे। पर पिछले बीस सालों से हम लोग आस-पास के बड़े किसानों की देखा-देखी और अधिक उत्पादन की लालच में आकर हाईब्रीड बीज, रासायनिक खाद और दवाई लाने लगे। कुछ सालों तक तो उत्पादन ठीक-ठाक रहा, पर पिछले आठ-दस सालों से फसलों में नई-नई बीमारीयाँ और वायरस की समस्या आने लगी। हमारा जो भी उत्पादन होता वो सारा खर्च में ही चले जाता। किसी साल तो लागत भी नहीं निकलती थी। एक साल का कर्ज दूसरे साल चुकाने की कोशिश करते थे, फिर भी कर्ज से नहीं निकल पाते थे।”

ऐलु दीदी कहती हैं – “भला हो समूह वालों का जिन्होंने पाँच साल पहले हमारे गाँव में महिला बचत समूह बनाया। समूह से हमें कम ब्याज और आसान किस्तों पर लोन मिल जाता है।”

दीदी पिछले पाँच सालों से समाज प्रगति सहयोग संस्था द्वारा संचालित गेन्दा प्रगति समूह की सदस्य है। संस्था पिछले चार सालों से उन्हें समूह बैठकों में बिना रासायनिक दवा की खेती करने के लिए जागरूक कर रही है। जिसमें जमीन की तैयारी से लेकर, बीज अंकुरण, बीज उपचार, जैविक खाद बनाना और फसलों में कीट नियंत्रण के लिए जैविक दवाई बनाने हेतु प्रशिक्षित कर रही है।

एक साल तक तो दीदी-भैया को इन सब बातों पर भरोसा ही नहीं हुआ, क्योंकि वे रासायनिक खाद और दवाईयों के आदि हो गये थे। पर संस्था के कार्यकर्ता लगातार समूह बैठकों में समझाते थे कि रासायनिक खेती खर्चीली तो है ही, पर इससे कैंसर जैसी बिमारियाँ भी फैलने लगी है। बिना रासायन के खेती करने के लिए उन्हें कई बार दूसरी जगहों का भ्रमण कराया गया। साथ ही फिल्में भी दिखाई गई।

ऐलु दीदी कहती हैं “अब हम बाजार से बिल्कुल भी जहरीली दवाई नहीं लाते हैं, क्योंकि हमें अपनी जमीन और बच्चों के भविष्य की चिन्ता है।” बोवनी से पन्द्रह दिन पहले ही दीदी बीजों को उगाकर देख लेती हैं। यदि बीज खराब हुआ तो समय रहते हुए दूसरा बीज बो पाये। बोवनी करते समय बीज उपचार करना उनकी आदत बन गई है। अपनी फसलों को कीटों से बचाने के लिए वे पाँच पत्ती की जैविक दवाई का उपयोग करती है। अगर इससे नियन्त्रण नहीं हुआ तो फिर वे लहसुन, प्याज, अदरक और हरी मिर्च की चटनी दवा बनाकर छिड़कती हैं। यह बहुत ही तीखी होती है, जिससे फसल की इल्लियाँ भाग निकलती है। गोविन्द भैया बताते हैं कि 

इसको छिड़कने के दो दिन बाद भी इसकी गंध नहीं जाती है। पहले इसे छिड़कने के एक-दो दिन बाद तक मैं ठीक से रोटी नहीं खा पाता था, पर अब आदत पड़ गई। इसमें मेहनत तो है पर पैसों की बचत है।…

जब से इन्होंने बिना रासायनिक दवाई की खेती करना शुरू किया तब से उन्हें साल की दोनो फसलों से डेढ़ लाख रूपये की बचत होने लगी है। जैविक खाद बनाने के लिए इनके पास एक पक्का नाडेप और एक भू-नाडेप है। जिनसे वे साल में दो बार खाद बनाकर पाँच से छः ट्राली खाद निकाल लेते हैं। ऐलु दीदी और गोविन्द भैया का मानना है कि पूरी जमीन के लिए इतना खाद पर्याप्त नहीं है। तीन से चार नाडेप और हों तभी पूरी जमीन के लिए जैविक खाद हो पायेगा। जब बाजार से रासायनिक खाद और दवाई ही नहीं लायेंगे तो पैंसे बचेंगे। सिर्फ पैसों की ही बचत नहीं होगी बल्कि हमारी खेती भी स्वस्थ होगी और हमारी आने वाली पीढ़ी का भविष्य भी सुरक्षित रहेगा।